पीरियड्स आना कोई शर्म की बात नहीं (28 मई अन्तराष्ट्रीय माहवारी स्वच्छता दिवस पर विशेष)

 



प्रीति पाण्डेय


मुझे याद है जब मुझे पहली बार पीरियड आया था तो मैं कितना रोई थी। मेरे लिए वह सब समझ पाना किसी पहेली से कम नहीं था। घर में मुझसे बड़ी बहन भी थी जिसको यकीनन मुझसे पहले पीरियड्स आए थे लेकिन न तो मेरी बहन ने और न ही मेरी मम्मी ने मुझे इस बारे में पहले से कुछ बताया था और न ही मुझे पहले से इस बारे में कुछ पता था। मुझे इतना याद है कि दीदी उन दिनों स्कूल नहीं जाती थी और मुझे जाना पड़ता था तब भी मुझे यह कह दिया जाता था कि दीदी के पेट में दर्द है इसलिए वो नहीं जाएगी और मैं पूरे रास्ते यह सोचती जाती कि पता नहीं सच में दर्द है या दीदी स्कूल न जाने का बहाना बना रही है।


लेकिन जब मुझे पहली बार पीरियड हुआ तो मैं समझ गई थी कि दीदी को यही पेट दर्द होता होगा जो वो हर महीने इन दिनों छुट्टी ले लेती है। पहली बार पीरियड का आना किसी भी लड़की के लिए एक सदमे से कम नहीं होता क्योंकि उस दिन से ही उसे उसकी मम्मी या बहन और अन्य घर की महिलाएं बड़े होने का हर पल अहसास कराना शुरू कर देती हैं। इस बारे में किस तरह धीरे और किन कोडवर्ड में बोलना चाहिए इस बात की ट्रेनिंग मिलनी शुरू हो जाती है। उन दिनों में क्या खाना है क्या नहीं खाना, कैसे चलना है और कितनी गति से चलना, कैसे उठना है और उठते साथ कैसे पीछे चैक करना है कि कहीं कपड़ों पर कोई दाग तो नहीं लगा, कितने घण्टे में पैड बदलना है और कहां फैंकना है। घर में किन चीजों को हाथ लगाना है और किनको नहीं यह वह ट्रेनिंग होती है जो हर लड़की को उसके पहले पीरियड के समय घर की और बाहर की हर महिला देना नहीं भूलती।


उस ट्रेनिंग का असर इतना गहरा होता है कि बचपन से आज तक हम खुलकर पीरियड्स आए हुए हैं यह नहीं बोल पाते। ऑफिस में किसी को अचानक पीरियड्स आ जाए तो वह अपनी महिला मित्र से बहुत ही धीमे स्वर में पैड की एमरजेंसी है क्या यह बोल कर मांगती है? उस पर भी यह डर कि कहीं कोई पैड लेते हुए देख न ले। घर में पापा, भाई या अन्य पुरूष व्यक्ति को इसके बारे में न पता चले। प्राकृतिक प्रकिया जो हर महिला के साथ होती है और यह बात हर पुरूष जानता ही है तो इसमें इतना छुपाव क्यों?



एक पुरूष मेडिकल स्टोर से कॉन्डोम का पैकेट जिस स्वर में मांग सकता है। उसी स्वर में वह अपनी पत्नी के लिए सेनेटरी पैड भी मांग सकता है लेकिन एक महिला कॉन्डोम की दूर की बात है उस सामान को भी एक अधिकार से नहीं मांग पाती जिस सामान का इस्तेमाल करना उसकी सेहत के लिए जरूरी है और अगर मांग भी लिया तो सेनेटरी पैड के पैकेट को खुल्ला हाथ में ले जाना तो ऐसे है मानो हाथ में कोई बम पकड़ लिया हो। यही वजह है सैनेटरी पैड को मेडीकल स्टोर वाले भी हमेशा रैप करके ही देते हैं। इसके पीछे क्या लॉजिक है यह बात मुझे आज तक समझ नहीं आई। जैसे शुशु और पॉटी एक प्राकृतिक प्रकिया है वैसे ही महिलाओं को पीरियड आना भी उतना ही प्राकृतिक है फिर इसमें इतनी शर्म क्यों? इसी शर्म के चलते कई बार छोटी-छोटी लड़कियां अपने साथ होने वाले इस बदलाव को समझ नहीं पातीं और वे खुलकर अपने घर में माँ तक से बातचीत नहीं कर पाती क्योंकि हमारे समाज में इसे शर्म का विषय बना दिया गया है।


घर में जब एक बच्ची को बुखार होता है तो पूरा परिवार उसकी देखभाल करता है क्योंकि सभी को पता है कि वह बच्ची अभी किस तकलीफ से गुजर रही है लेकिन पीरियड के समय उसे होने वाले इस असहनीय दर्द को उसे चुपचाप सहने के लिए अकेले छोड़ दिया जाता है। अगर घर में किसी को पता नहीं है तो वह कई बार मेहनत वाले काम तक करती है ताकि सभी को वह सामान्य ही लगे। माना कि यह हर महिला को होता है और हर महीने ही होता है लेकिन उस समय उसको एक केयर और प्यार की जरूरत होती है। सोचिए जब घर में इतना छिपाने की जरूरत महसूस होती है तो ऐसे में उन लड़कियों के लिए बाहर निकलना कितना मुश्किल होगा। आपको जानकर हैरानी होगी कि हमारे देश में हर साल दो करोड़ से अधिक लड़कियां सिर्फ इसलिए स्कूल जाना छोड़ देती हैं क्योंकि उनकी माहमारी शुरू हो जाती है। हालांकि इसके पीछे कई अन्य वजह भी होती हैं लेकिन शुरूआती कारण यही है कि लोगों को इसकी पूरी जानकारी ही नहीं होती और वे इसे शर्म या छिपाने का विषय ही समझते हैं। जबकि इसमें छिपाने जैसा कुछ नहीं है। यह बिल्कुल सामान्य सी बात है।


जागरूकता की कमी


हमारे देश में आज भी हजारों महिलाओं को पीरियड्स के दौरान साफ-सफाई का ध्यान न रखने के चलते इनफेक्शन होना एक आम बात है। कम जानकारी और इस विषय पर खुलकर बात न करने के कारण ही ऐसा होता है। बच्चियों को अगर पीरियड्स के दौरान साफ-सफाई की जानकारी नहीं दी जाती तो यह उनके लिए खतरनाक साबित हो सकता है। चूंकि पीरियड्स के दौरान अगर पूरी तरह सफाई और स्वच्छता का ध्यान ना रखा जाए तो शादी के बाद उनके मां बनने में बहुत सी दिक्कतें आ सकती हैं। आईये जानते हैं पीरियड्स में आपको किस तरह साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखना चाहिए।


महिलाओं को अपनी सेहत के प्रति जागरूक होने की आवश्यकता


आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत में केवल 36 प्रतिशत महिलाएं ही महामारी के दौरान पैड का इस्तेमाल करती हैं और अन्य आज भी कपड़े का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं। अब सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों है? पहली बात कि भारत में खासकर महिलाएं आज भी अपनी सेहत को लेकर उतनी गम्भीर नहीं है, जितने की पुरूष। घर परिवार की जरूरतों के चलते वह अपनी जरूरतों और अपनी सेहत से हमेशा समझौता करती हैं। हालांकि भारत में साउथ के कई राज्य ऐसे भी हैं जहां कि महिलाएं अपनी सेहत को लेकर सचेत हैं और पैड का ही इस्तेमाल करती हैं लेकिन हमारे उत्तर भारत में ही महिलाएं सबसे ज्यादा अपनी सेहत को नजर अंदाज करती हैं। या तो उन्हें महामारी की स्वच्छता से संबंधित इतनी जानकारी नहीं है या फिर पैड के महंगे होने के कारण वह कपड़े का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं।


हर गली मौहल्ले को चाहिए एक पैड मैन


अक्षय कुमार की बहुत ही फेमस हुई फिल्म “पैड मैन” में बहुत अच्छा दिखाया गया है कि कम पैसों में भी हम अपने गली-मौहल्ले की महिलाओं को महामारी के दौरान सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं। यही सुरक्षा हमारे देश को चाहिए जहां हर गली-मौहल्ले में एक पैड मैन हो जो न केवल महिलाओं को उनकी स्वछता से संबंधित जानकारी दे बल्कि उन्हें सस्ते पैड भी मुहैया कराए। सरकार को जगह-जगह आंगनवाड़ी की तर्ज पर पैड सुलभ केन्द्र खोलने चाहिए।


सरकार को पैड की कीमत सुनिश्चित करनी चाहिए


आज मार्केट में कई तरह के पैड मौजूद हैं हर कोई मुंह मांगी कीमत वसूल रहा है ऐसे में सरकार को देश की महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए न केवल पैड की कीमत को नियंत्रित करना चाहिए बल्कि रूरल एरिया में निःशुल्क पैड का वितरण भी करना चाहिए। जन वितरण प्रणाली की दुकानों पर प्रत्येक माह के राशन के साथ यह पैड निःशुल्क मिलने चाहिए।


पैड्स चेंज करने का सही समय


हम महिलाएं घर चलाने में बेहद होशियार होती हैं जहां ज्यादा की जरूरत होती है वहां कम में भी गुजारा करना हमें अच्छे से आता है यही होशियारी हम अपनी सेहत के लिए भी करने से पीछे नहीं हटतीं। महंगे होने के कारण अधिकतर महिलाएं एक पैड को ही सुबह से शाम तक लगाए रहती हैं जो कि उनके लिए बेहत खतरनाक साबित हो सकता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों की मानंे तो पैड चेंज करने का समय रक्त के प्रवाह पर निर्भर करता है अगर रक्त का प्रवाह ज्यादा है जो कि शुरूआती दिनों में होता है उन दिनों आपको हर 4 से 5 घण्टे में एक पैड बदलना चाहिए। अगर रक्त का प्रवाह कम है तो आप 8 घण्टे बाद बदल सकती हैं।


माहवारी एक ऐसा विषय है जो हमेशा से विषय बनकर ही रह जाता है। हजारो सर्वे होते हैं, लेख लिखे जाते हैं, सरकारी कई योजनाएं भी बनती हैं लेकिन फिर भी स्थिति वहीं के वहीं है। क्योंकि महावारी को हमारे समाज में आज भी काफी हद तक शर्म का विषय माना जाता है, बस हमें इसी शर्म को खत्म करना है। माहवारी होना एक महिला के लिए गर्व की बात है क्योंकि इसी से वह प्रकृति के निर्माण में अपना योगदान देती हैं।